भारतीय समाज में एक आम दृश्य है ठेले, दुकानों और ढाबों पर बिकने वाले पकवान, समोसे-कचौड़ी, चाट, पकोड़े, जलेबी, इडली-सांभर, पराठे और अनगिनत देसी व्यंजन, जिन्हें अक्सर अखबार या अन्य छपे हुए कागज में लपेटकर ग्राहकों को दिया जाता है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है क्योंकि यह सस्ती, आसान और दिखने में ‘सुरक्षित’ लगता है। ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरों की गलियों तक, यह परंपरा ऐसी जमी हुई है कि जब कोई दुकानदार खाना अखबार में लपेटकर देता है तो हम बिना सोचे-समझे उसे स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इस सहज दिखने वाली आदत के भीतर छिपा है एक धीमा जहर, एक साइलेंट हेल्थ इमरजेंसी, जो धीरे-धीरे शरीर में घर कर रही है।
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने कई बार चेतावनी जारी की है कि अखबार में खाना लपेटना न केवल स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि खाद्य सुरक्षा कानूनों के तहत प्रतिबंधित भी है। फिर भी, वास्तविकता यह है कि देश के हर कोने में यह प्रथा आज भी बहुत सामान्य है।
आज के अखबार रंगीन और आकर्षक होते हैं। उन्हें छापने के लिए इस्तेमाल होती है मिनरल ऑयल आधारित स्याही, कई रंगीन रसायन, पॉली साइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (PAH), बिस्फेनल-A (BPA), थैलियम, लेड और अन्य भारी धातुएँ। स्याही को चिपकाने के लिए उपयोग किए जाने वाले रसायन गर्म चीजों के संपर्क में आते ही ढीले पड़ जाते हैं और भोजन में घुलने लगते हैं।
FSSAI के अनुसार, प्रिंटिंग इंक में पाया जाने वाला मिनरल ऑयल, विशेषकर MOAH (Mineral Oil Aromatic Hydrocarbon) अत्यंत खतरनाक है। यह शरीर में प्रवेश करते ही हार्मोनल असंतुलन, कोशिकीय क्षति, प्रजनन क्षमता में कमी और कैंसर का कारण बन सकता है। MOAH को लैब में कैंसरजनक (carcinogenic) पाया गया है। सबसे घातक यह है कि यह भोजन में बिना स्वाद और बिना गंध के घुलता है। पॉली साइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (PAH) तत्व मुख्यतः त्वचा, फेफड़े और मूत्राशय के कैंसर से जुड़ा पाया गया है। यह शरीर में जाकर DNA को नुकसान पहुंचाता है। कोशिकाओं के विभाजन को असामान्य बनाता है और लंबे समय तक रहने पर ट्यूमर बनने की संभावना बढ़ाता है।
BPA के अत्यंत भयानक प्रभाव हैं लड़कियों में समय से पहले माहवारी, पुरुषों में बांझपन, भ्रूण के विकास में बाधा, हार्मोन उत्पादन में गड़बड़ी और मस्तिष्क के विकास पर असर। कई देशों में BPA पर प्रतिबंध लगा है। भारत में भी इसके उपयोग को लेकर कड़े नियम हैं, पर छपे हुए कागज़ों में यह आज भी पाया जाता है।
प्रिंटिंग स्याही में पाए जाने वाले तत्वों से न्यूरोलॉजिकल समस्या, व्यवहारिक बदलाव, मूड स्विंग, चिड़चिड़ापन और हार्मोन असंतुलन का खतरा बढ़ जाता है।
समोसा, कचौड़ी, पराठा, जलेबी, पकौड़ा, चाउमीन, यह सभी गरम-गरम बेचे जाते हैं। गरम के कारण अखबार की स्याही तेजी से पिघलकर भोजन पर फैलती है। जैसे ही गर्म नाश्ता अखबार पर रखा जाता है तो स्याही के कण पिघलता है। रसायन भोजन में घुल जाता है। तेल और नमी इन्हें भोजन में गहराई तक खींच लेती है। यह प्रक्रिया इतनी तेज होती है कि कुछ सेकंड का संपर्क भी भोजन को दूषित कर देता है। तेल और गर्मी दोनों मिलकर रसायनों को भोजन में फैलाता हैं। इसलिए समोसा, पराठा, पकोड़ा, छोले-भटूरे, तंदूरी आइटम सबसे ज्यादा प्रभावित होता है।
बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। अध्ययन बताता हैं कि अखबार में लिपटा खाना खाने से सीखने में कठिनाई, ध्यान केंद्रित न कर पाना, विकास में देरी, व्यवहारिक बदलाव और बुद्धि स्तर पर प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा गया है।
BPA और अन्य रसायनों के कारण लड़कियों में प्रारंभिक यौवन, लड़कों में हार्मोन असंतुलन और प्रजनन क्षमता में कमी जैसे गंभीर प्रभाव देखा गया है। जब यह रसायन पेट और आंतों में जाता हैं, तो एसिडिटी, गैस, पेट दर्द, डायरिया, संक्रमण और अल्सर जैसी समस्याएँ होने लगती हैं। धीरे-धीरे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जाती है। बुजुर्ग और बच्चे इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। MOAH और PAH जैसे रसायन कई प्रकार के कैंसर की जड़ माने जाते हैं फेफड़े का कैंसर, पेट का कैंसर, मूत्राशय का कैंसर और त्वचा का कैंसर। यह खतरा लंबे समय तक अखबारी कागज़ पर खाना खाने वालों में अधिक होता है।
अखबार किसी प्लास्टिक पैक में नहीं आता है उन्हें छपने के दौरान मशीनों की गंदगी, प्रिंटिंग प्रेस की सतह, ट्रकों और ई-रिक्शा की धूल, दुकानों में खुले वातावरण, विक्रेताओं के हाथों और मिट्टी-पानी सबका संपर्क मिलता है। रीसाइकिल किए गए कागज के बारे में तो कहा ही जाता है कि वह सबसे अस्वच्छ होता है। यह सूक्ष्म बैक्टीरिया भोजन को दूषित कर देता हैं और परिणामस्वरूप फूड पॉइजनिंग, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल संक्रमण, उल्टी-दस्त और बुखार जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं।
खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम–2018 में स्पष्ट लिखा है कि अखबार या छपे हुए कागज़ में भोजन को लपेटना पूरी तरह प्रतिबंधित है। FSSAI ने कई बार चेतावनी जारी की है कि अखबार में खाना देना, खाना परोसना और लपेटना सब कानूनन अपराध है। फिर भी पालन नहीं होता है क्योंकि इसमें लागत कम है, लोग जागरूक नहीं है, दुकानदार सस्ते विकल्प चाहते हैं, निरीक्षण की कमी है और ग्रामीण इलाकों में निगरानी सीमित है। इसलिए यह आदत वर्षों से चली आ रही है।
ग्रामीण बाजारों में पॉपुलर हो चाट, समोसा, पकौड़ा, जलेबी, चूड़ा-दही, चना अक्सर अखबार में दिया जाता है। लोग यह मानते हैं कि कागज़ बस कागज़ है। उन्हें स्याही के खतरों की जानकारी नहीं है। ग्रामीण इलाकों में कुपोषण अधिक है, स्कूल ड्रॉपआउट दर अधिक है और स्वास्थ्य सुविधाएँ कम हैं। यह समस्या बच्चों को और ज्यादा प्रभावित करती है। एक अध्ययन में पाया गया है कि जिन स्कूलों के बच्चे अखबार में लिपटा नाश्ता खाते थे उनमें एकाग्रता की क्षमता कम, सीखने की गति धीमी और थकान अधिक जैसी समस्याएँ स्पष्ट देखी गई है।
अखबार मुफ्त या बहुत सस्ते मिल जाते हैं, इसलिए दुकानदार इसी का उपयोग करते हैं। “हम तो बचपन से ऐसा खाते आए हैं” यह सोच सबसे बड़ी बाधा है। बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग महंगी है। बड़े शहरों में विकल्प हैं, पर छोटे कस्बों में अभी कमी है। समस्या अदृश्य है, लोग इसके लक्षण को सामान्य समझ लेते हैं, बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती है, लोग कारण नहीं समझ पाते हैं, बच्चे और बुजुर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। यह वही संकट है जिसे विशेषज्ञ साइलेंट हेल्थ इमरजेंसी कहते हैं।
